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गुरुवार, 24 जुलाई 2014

दुनिया की हर तीसरी 'बालिका वधू' भारत में

बाल विवाह के तमाम किस्से और घटनाएँ हमने सुनी हैं।  कई बार लगता है कि ये सब अतीत की बातें हैं और सभ्य, सुशिक्षित व जागरूक होते समाज में इसकी गुंजाइश अब नहीं है।  पर यह एक अजीब  विडंबना है कि जिन देशों में बाल विवाह सबसे ज्यादा होते हैं, उनमें भारत भी है। यूनीसेफ  द्वारा जुलाई 2014 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की हर तीसरी बालिका वधू भारत में है। यूनिसेफ की रिपोर्ट 'एंडिंग चाइल्ड मैरिज - प्रोग्रेस ऐंड प्रॉस्पेक्ट' के अनुसार, दक्षिण एशिया खासकर भारत और सब-सहारा अफ्रीका बाल विवाह के मामले में सबसे आगे हैं। दुनियाभर की बाल वधुओं में से करीब आधी (42 फीसदी) दक्षिण एशिया में हैं। 

इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 25 करोड़ महिलाएं तो महज 15 साल से भी कम उम्र में ही ब्याह दी गईं, वहीं 70 करोड़ से अधिक महिलाएं 18 साल से कम उम्र में ब्याही गईं। इस रिपोर्ट के अनुसार बाल विवाह के मामले में भारत छठा प्रमुख देश है। 33 फीसदी बाल वधुएं अकेले भारत में हैं।बाल विवाह के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 देशों की बात करें तो इनमें क्रमश: नाइजर, बांग्लादेश, चाड, माली, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, भारत, गिनी, इथोपिया, बुरकीना फासो और  नेपाल शामिल हैं।  

दक्षिण एशिया में बाल-विवाह एक विकट समस्या है।  अकेले 42 फीसदी बाल वधुएं दक्षिण एशिया में हैं। दक्षिण एशियाई और उप सहारा अफ्रीकी इलाकों में बाल विवाह आम बात है।  भारत उन दस शीर्ष देशों में है जहां बाल विवाह की सबसे ऊंची दर है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यहाँ 27% महिलाएं ऐसी हैं, जिनकी शादी 15 वर्ष से कम उम्र में हुई है, वहीं 31% महिलाओं का विवाह 15 से 18 के बीच हुआ है। भारत में शादी की औसत उम्र 19 साल है।  

ऐसा नहीं है कि बाल विवाह के खिलाफ कानूनी प्रावधान नहीं हैं, पर उनका प्रभावी क्रियान्वयन जरूर नहीं हो रहा है। भारत में 18 साल से कम उम्र में लड़की का और 21 साल से कम उम्र में लड़के का विवाह बाल विवाह माना  जाता है। 1929 में बाल विवाह गैरकानूनी बनाया गया, तब लड़की-लड़का की शादी की उम्र 15 व 18 वर्ष थी। 1950 में संविधान लागू होने के बाद कई संशोधन हुए, जिसमें 1978 में मौजूदा उम्र सीमा तय की गई। 2006 में कानून बनाकर बाल विवाह पर आर्थिक जुर्माना और कैद की सजा का प्रावधान भी किया गया, पर स्थिति में अभी भी बहुत सुधार नहीं है। गौरतलब है कि  भारत में बिहार, राजस्थान, झारखंड, यूपी, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में बाल विवाह की बड़ी समस्या है।



बाल विवाह से तमाम विसंगतियां उत्पन्न होती हैं, यही कारण है कि इसे गंभीर सामाजिक दोष माना  जाता है। कम उम्र में शादी से  स्कूल छूटने और पढ़ाई में पीछे रहने की आशंका सदैव बनी रहती है।  लड़कियों के कम उम्र में माँ बनने से जहाँ मौत का अधिक अंदेशा होता है, वहीं कम उम्र में माँ बनने से सामान्यतया बच्चे भी अविकसित-अस्वस्थ पैदा होते हैं। कम उम्र में यौन संबंध से जननांगों में विकृति की संभावना तो होती ही है, बाल वधुओं के घरेलू हिंसा की चपेट में आने का खतरा भी अधिक होता है।  

बाल विवाह को रोकने के लिए तमाम लड़कियाँ भी खुद सामने आई हैं। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले की संगीता बौरी ने न केवल खुद को बल्कि दूसरी अनेक लड़कियों को भी बाल वधू बनने से बचाया है। संगीता जब 15 साल की हुई तो परिवारवालों ने उसकी जबरन शादी करानी चाही, लेकिन उसने असाधारण हिम्मत दिखाते हुए अपनी शादी रुकवा दी। उसके गांव की दो और लड़कियों, बीना कालिंदी और मुक्ति मांझी ने भी बचपन में शादी से इनकार कर दिया। इन लड़कियों को दिसंबर 2011 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सम्मानित किया। संगीता आज एक मिसाल बन चुकी है।  

इसमें कोई शक नहीं कि स्त्री जननांगों के विकृत करने और बाल विवाह दो ऐसी बाते हैं, जो दुनियाभर में करोड़ों लडकियों के अपने निर्णय लेने के अधिकार को प्रभावित करती हैं। लड़कियां संपत्ति नहीं हैं। उन्हें अपनी तकदीर चुनने का अधिकार है। जब वे ऐसा करने में सक्षम होंगी तो इससे सभी को फायदा होगा। अत: बाल विवाह पर रोक के लिए सिर्फ क़ानूनी नहीं बल्कि सामाजिक, पारिवारिक और वैयक्तिक पहल भी जरुरी है। 

- आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर


मंगलवार, 15 जुलाई 2014

'पत्नी' और 'माँ' एक ही सिक्के के दो पहलू

इंटरनेट से लेकर सोशल मीडिया और वाट्स-एप तक तमाम ऐसे मैसेज प्राप्त होते हैं या दिखाई देते हैं, जिनमें 'पत्नी' को लेकर तमाम तरह के व्यंग्य और छींटाकशी होती है। कई बार तो पत्नी को एक समस्या के रूप में दिखाया जाता है, यहाँ तक कि पत्नी द्वारा पति की सलामती के लिए रखे जाने वाले व्रतों को  लेकर  भी तमाम व्यंग्य दिखते हैं।

....वहीँ, तमाम ऐसे सन्देश भी दिखाई देते हैं, जिनमें माँ की महिमा गाई गई है। कविगण भी माँ की महिमा में मंचों  से लेकर पन्नों तक  रँग डालते हैं और पत्नी को व्यंग्य विषय बनाकर रचनाएँ रचते हैं.

......पर लोग इस तरह की रचनाएँ रचते हुए,  सन्देश पोस्ट करते हुए या शेयर करते हुए भूल जाते हैं कि 'पत्नी' और 'माँ' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी की पत्नी ही बच्चों की माँ बनती है और हर माँ किसी की पत्नी होती है।

 वास्तव में ये दोनों नारी की ही भूमिकाएं हैं। पर यह पितृसत्तात्मक समाज अपनी  स्वार्थ सिद्धि के लिए इन दोनों भूमिकाओं को अलग-अलग कर आँकता है !! 













मंगलवार, 8 जुलाई 2014

नारों और आँकड़ों में उलझी गरीबी

'गरीबी हटाओ' का नारा हमारे जन्म से भी पहले का है। वक़्त बदला, पीढ़ियाँ बदल गईं पर नारा अभी भी वहीँ अटका पड़ा है।  हर सरकार गरीबी निर्धारण के नए फार्मूले तैयार करती है।  गरीबी का पैमाना कुछ रुपयों के बीच झूल रहा है।  इसे थोड़ा सा आगे या पीछे कर सरकारें अपनी इमेज चमकाती हैं कि देखो हमने इतने प्रतिशत गरीबी कम कर दी, पर बेचारा गरीब अभी भी उसी स्थिति में पड़ा है।  न तो उसे गरीबी रेखा की बाजीगरी समझ में आती है और न उसे यह पता होता  है कि कब वह गरीबी रेखा से नीचे या ऊपर हो गया।  सवाल अभी भी वहीँ मौजूं है कि आखिर सरकारें गरीबी दूर करने के लिए 'नारों' और 'गरीबी रेखा के पैमानों' पर ही क्यों अटकी पड़ी हैं।  आखिर इस दिशा में कोई ठोस पहल क्यों नहीं होती !!