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शनिवार, 31 मई 2014

रेप, गैंग रेप, वहशी कृत्य, फाँसी, हत्या ...

रेप, गैंग रेप, वहशी कृत्य, फाँसी, हत्या  .....ये सारे शब्द कानों में पिघले शीशे की तरह चुभ रहे हैं। एक-दो दिन के भीतर उत्तर प्रदेश के कुछेक हिस्सों में हुए ऐसे वीभत्स कृत्य  सरकार पर गंभीर प्रश्नचिन्ह हैं।  मुआवज़ा, सहानुभूति, राजनैतिक बयानबाजी, अधिकारियों के बयान, ब्रेकिंग न्यूज, नेताओं के दौरे, पुलिस जाँच और सीबीआई जाँच .... ये कोई नए शब्द नहीं हैं। प्राय: हर घटना के बाद ऐसे शब्द सुनाई देते हैं और फिर एक लम्बा सन्नाटा पसर जाता है।  घटना सिर्फ एक अखबारी कतरन बनकर रह जाती है।  आखिर, सरकारें और समाज यह क्यों नहीं सुनिश्चित करता है कि ऎसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो ? जितनी जोर से बयानबाजी होती है, उसके बाद उतनी ही जोर से लीपा-पोती भी होती है। दिल्ली में हुआ 'दामिनी' कांड अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है, जब लोग सड़कों पर उतर आये थे…पर उसके बाद की घोषणाओं और वायदों का क्या ?

जब तक ऐसी खोखली बयानबाजियाँ और जाँचें चलती रहेंगी, तब तक इन घटनाओं से पार पाना मुश्किल ही लगता है।  जरुरत राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक व पुलिस कार्यशैली में सुधार की है।  जब राजनीति हर घटना को जाति, संप्रदाय, क्षेत्र  या अन्य चश्मे से देखती है और प्रशासन अपना इक़बाल खो बैठता है तो दुष्कर्मियों और दहशतगर्दों में से भय निकल जाता है।  जरुरत है कि ऐसे दुष्कृत्यों और पाशविकता  के विरुद्ध हम सब सिर्फ अपने-अपने ढंग से खड़े ही न हों, बल्कि  सुनिश्चित करें कि इसके अंजाम तक भी पहुँचें। अन्यथा हर एक पखवाड़े पर ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी और फिर वही  मुआवज़ा, सहानुभूति, राजनैतिक बयानबाजी, अधिकारियों के बयान, ब्रेकिंग न्यूज, नेताओं के दौरे, पुलिस जाँच और सीबीआई जाँच .…… पर नतीजा कब आएगा और क्या आया, किसी को नहीं पता !!

सोमवार, 26 मई 2014

13 साल में कर लिया एवरेस्ट फतह : पूर्णा के जज्बे को सलाम

कहते हैं हौसले बुलंद हों तो फिर पहाड़ भी रास्ता दे देता है।  इसे बखूबी सच कर दिखाया है आंध्रप्रदेश की 13 वर्षीया मालावाथ पूर्णा ने, जिसने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढ़कर सबसे कम उम्र में इस पर फतह करने  वाली महिला का रिकार्ड बनाया है। पूर्णा ने इस चढ़ाई को चीन के सबसे खतरनाक रास्ते से तय किया है। मनोनीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट के जरिये पूर्णा को बधाई देते हुए कहा,  'इस खबर को पढ़कर बहुत खुशी हुई। हमारे युवाओं को बधाई। हमें उन पर गर्व है।'

पूर्णा आंध्रप्रदेश के खमम जिले की नौवीं कक्षा की छात्रा है। इस अभियान पर वह अपनी सहयोगी 16 वर्षीय साधनापल्ली आनंद कुमार के साथ थीं। पूर्णा और आनंद दोनों ही आंध्र प्रदेश सोशल वेलफेयर एजुकेशन सोसायटी के विद्यार्थी हैं।


52 दिनों की चढ़ाई के बार वे 25 मई, 2014 की सुबह छह बजे एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचे।  पूर्णा ने एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचकर एक रिकॉर्ड कायम कर दिया है।  वह इतनी ऊंचाई पर चढ़ने वाली सबसे युवा महिला बन गयी है।  इन दोनों का चयन सोसायटी के 150 बच्चों में से किया गया, जिन्होंने साहसिक खेलों को चुना था।  इनमें से 20 बच्चों को प्रशिक्षण के लिए दार्जिलिंग के एक प्रतिष्ठित पर्वतारोहण संस्थान में भेजा गया था और नौ बच्चों को पहले भारत-चीन सीमा पर भेजा गया।  इसमें से दो विद्यार्थी ताकत और धीरज की बदौलत सबसे उच्च श्रेणी तक पहुंचने में सफल रहे, जिन्हें अप्रैल में एवरेस्ट फतह करने के लिए भेजा गया।  अब ये दोनों विद्यार्थी बेस कैंप की ओर लौट रहे हैं।

शुक्रवार, 23 मई 2014

एक और महिला मुख्यमंत्री : आनंदी बेन पटेल

राजस्थान, प. बंगाल, तमिलनाडु के बाद एक और राज्य में महिला मुख्यमंत्री।  गुजरात की राजस्व मंत्री आनंदी बेन पटेल 22 मई 2014  को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री  बन गईं। राज्‍यपाल कमला बेनीवाल ने उन्‍हें शपथ दिलाई। इस मौके पर पीएम पद संभालने जा रहे नरेंद्र मोदी के अलावा, बीजेपी अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह, पार्टी के सबसे सीनियर लीडर आडवाणी और कुछ अन्य पार्टी नेता भी मौजूद थे। इसके अलावा, मोदी के धुर विरोधी माने जाने वाले केशुभाई पटेल भी कार्यक्रम में पहुंचे। 

 आनंदीबेन की छवि एक कुशल प्रशासक की मानी जाती है।  राज्य के नौकरशाहों के बीच उनकी तूती बोलती है। मोदी सरकार में वह एकमात्र ऐसी मंत्री थीं जो सरकार के काम-काज पर चर्चा के लिए दूसरे विभागों के सचिवों की भी मीटिंग लेती थी। वह नौकरशाहों से सख्‍ती से काम लेने वाली मंत्री के रूप में जानी जाती हैं। आनंदीबेन बोलती भी कम ही हैं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी उन्हें हंसते हुए कम ही देखा जाता है। वह गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री तो हैं ही, साथ ही राज्य की भाजपा  सरकार में सबसे ज्यादा दिनों तक मंत्री रहने वाली महिला नेता भी हैं।

आनंदीबेन किसी क्षेत्र विशेष को अपना 'गढ़' बनाने में यकीन नहीं करती हैं। 1998 में वह मांडल सीट से चुनाव जीतीं औऱ अगली बार उत्तरी गुजरात की पाटन सीट से विधानसभा पहुंचीं। 2012 में उन्होंने घटलोडिया से चुनाव जीता।

वह शुरू से ही बहादुर रही हैं। 1987 में स्कूल के दोस्‍तों के साथ पिकनिक के दौरान वह दो लड़कियों को बचाने के लिए सरदार सरोवर जलाशय में कूद पड़ी थीं। बहादुरी के इस कारनामे के चलते उन्हें गवर्नर ने सम्मानित भी किया था। नरेंद्र मोदी और आनंदीबेन, दोनों विसनगर (मेहसाणा) के एनएम हाईस्कूल में ही पढ़ते थे।  मोदी ही आनंदीबेन को राजनीति में लाए थे। दोनों ने एक ही स्‍कूल में पढ़ाई की थी। बाद में आनंदीबेन टीचर बन गईं। लेकिन, मोदी उन्‍हें राजनीति में ले आए। 

73 वर्षीय आनंदीबेन मोदी की गैरमौजूदगी में सरकार चलाती रही हैं। कन्या विद्यालय में टीचर रहीं आनंदीबेन लंबे सियासी सफर के बाद सीएम की कुर्सी तक पहुंची हैं। आनंदीबेन पटेल पुरुष प्रधान समाज में भी अपनी पहचान बनाने के लिए जानी जाती हैं। कहा जाता है कि अपनी स्कूलिंग के दौरान वह लड़कों की क्लास में एकमात्र लड़की थीं। वह 15 सालों से अपने पति से अलग रह रही हैं। आनंदीबेन पटेल अपनी बेटी अानार के बेहद करीब हैं। 

 आनंदी बेन के पति मफतभाई सायकोलॉजी के प्रोफेसर हैं। मफतभाई जनसंघ के समय से ही बीजेपी से जुड़े थे। 46 साल की उम्र में पहली बार आनंदीबेन के राजनीति में आने की चर्चा हुई, वह भी तब, जब मोदी आरएसएस से बीजेपी में आए। कहा जाता है कि मोदी और उनके बीजेपी समर्थकों ने ही आनंदीबेन से राजनीति में आने की गुजारिश की। पहले तो उन्होंने थोड़ा संकोच किया लेकिन बाद मे मफतभाई के कहने पर वह राजनीति में आने के लिए तैयार हो गईं। 

कुछ महीनों बाद जब मोदी गुजरात बीजेपी के महासचिव बने तो उन्होंने ही आनंदीबेन पटेल को पार्टी की राज्य महिला इकाई का अध्यक्ष बनवाया। हालांकि इसकी बड़ी वजह यह भी थी कि राज्य में बीजेपी के पास पटेल जाति की कोई महिला नेता भी नहीं थी। आनंदी तेजी से सियासी सीढ़ियां चढ़ीं और 1994 में उन्हें राज्यसभा के लिए भी नामांकित किया गया। 

1998 से लगातार विधायक आनंदी बेन गुजरात में सर्वाधिक समय तक विधायक रहने वाली महिला नेता हैं। वह केशुभाई पटेल सरकार में भी मंत्री रह चुकी हैं। हालांकि वह अलग-अलग सीटों से चुनाव लड़ती रही हैं। वह पहले मांडल, पाटन और इस बार अहमदाबाद की घटलोडिया सीट से चुनाव जीती हैं। 

आनंदी बेन को मोदी की वफादार साथी माना जाता है। यही नहीं जब केशुभाई की सरकार में मोदी पर निगरानी रखी जा रही थी, तब भी वह मोदी के साथ नजर आने से नहीं डरती थीं। मोदी की कैबिनेट में स्कूलों में नामांकन बढ़ाने और भूमि रिकॉर्ड का डिजिटलाइजेशन करने को लेकर भी उनके काम की खूब तारीफ हो चुकी है।

गुरुवार, 15 मई 2014

अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस : परिवार की महत्ता

परिवार की महत्ता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता।  रिश्तों के ताने-बाने और उनसे उत्पन्न मधुरता, स्नेह और प्यार का सम्बल ही परिवार का आधार है।  परिवार एकल हो या संयुक्त, पर रिश्तों की ठोस बुनियाद ही उन्हें ताजगी प्रदान करती है।  आजकल रिश्तों को लेकर मातृ दिवस, पिता दिवस और भी कई दिवस मनाये जाते हैं, पर आज इन सबको एकीकार करता हुआ ''अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस'' मनाया जाता है।  परिवार का साथ व्यक्ति को सिर्फ भावनात्मक रूप से ही नहीं बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टि से भी मजबूत रखता है। परिवार के सदस्य  ही व्यक्ति को सही-गलत जैसी चीजों के बारे में समझाते हैं।  

परिवार की इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 1993 में एक प्रस्ताव पारित कर प्रत्येक वर्ष 15 मई को अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।  वस्तुत : अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस परिवारों से जुड़े मसलों के प्रति लोगों को जागरुक करने और परिवारों को प्रभावित करने वाले आर्थिक, सामाजिक दृष्टिकोणों के प्रति ध्यान आकर्षित करने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है.

उपभोक्तावाद एवं अस्त-व्यस्त दिनचर्या के इस दौर में जहाँ कुछ लोग अपने को एकाकी समझकर तनाव, डिप्रेशन और कभी-कभी तो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं, वहीँ कुछ लोग अपने काम को इतनी प्राथमिकता देने लगते हैं कि परिवार के महत्व को ही पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं।  एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में वे ना तो अपने माता-पिता को समय दे पाते हैं और ना ही अपने वैवाहिक जीवन के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में सक्षम होते हैं। 

ऐसे में एक तरफ जहाँ  परिवार के लोगों की वैयक्तिक जरूरतों के साथ सामूहिकता का तादात्मय परिवार को एक साथ रखने के लिए बेहद जरूरी है, वहीँ  परिवार और काम के बीच का संतुलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के लिए उसका परिवार बहुत महत्वपूर्ण होता है। व्यक्ति के जीवन को स्थिर  और खुशहाल बनाए रखने में उसका परिवार बेहद अहम भूमिका निभाता है।  

सो, आप सभी लोग अपने परिवार के साथ विशेष रूप से आज का दिन इंजॉय करें और wish Happy family !!

रविवार, 11 मई 2014

'माँ' किसी दिन की मोहताज नहीं

माँ दुनिया का सबसे अनमोल रिश्ता है। एक ऐसा रिश्ता जिसमें सिर्फ अपनापन और प्यार होता है। माँ हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती है और माँ की वजह से हम आज इस दुनिया में हैं। दुनिया में माँ का एक ऐसा अनूठा रिश्ता है, जो सदैव दिल के करीब होता है। हर छोटी-बड़ी बात हम माँ से शेयर करते हैं। जब भी कभी उलझन में होते हैं तो माँ से बात करके जो आश्वस्ति मिलती है, वह कहीं नहीं। दुनिया के किसी भी कोने में रहें, माँ की लोरी, प्यार भरी डांँट और चपत, माँ का प्यार, दुलार, स्नेह, अपनत्व व ममत्व, माँ के हाथ का बना हुआ खाना, किसी से झगड़ा करके माँ के आँचल में छुप कर अपने को महफूज समझना, बीमार होने पर रात भर माँ का जगकर गोदी में सर लिए बैठे रहना, हमारी हर छोटी से छोटी जिद को पूरी करना, हमारी सफलता के लिए देवी-देवताओं से मन्नतें माँंगना .....और भी न जाने क्या-क्या कष्ट माँ हमारे लिए सहती है। एक दिन हम सफलता के पायदान पर चढ़ते हुए अपनी अलग ही जिदगी बसा लेते हैं। हम माँ की नजरों से दूर अपनी दुनिया में भले ही अलमस्त रहते है, फिर भी माँ रोज हमारी चिंता करती है। हम सोचते हैं कि हम बड़े हो चुके हैं, पर माँ की निगाह में तो हम बच्चे ही हैं। माँ की इबादत हर दिन भी करें तो भी उसका कर्ज नहीं चुका सकते। कहते हैं ईश्वर ने अपनी कमी पूरी करने के लिए इस धरा पर माँ को भेजा। इस धरा पर माँ ईश्वर का जीवंत रूप है। माँ  को खुशियाँ और सम्मान देने के लिए पूरी जिंदगी भी कम होती है।

    भारतीय परंपरा में मातृ शक्ति का विशिष्ट स्थान है। यहाँ मातृ पूजा की सनातन परंपरा रही है और हर जीवनदायिनी को माँ का दर्जा दिया गया है, फिर चाहे वह धरती हो या प्रकृति। नवरात्र जैसे पवित्र त्यौहार तो मातृ शक्ति को ही समर्पित होते हैं। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी देखें तो मातृ पूजा का इतिहास सदियों पुराना एवं प्राचीन है। यूनान में वसंत ऋतु के आगमन पर रिहा परमेश्वर की मांँ को सम्मानित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता था। 16वीं सदी में इंग्लैण्ड का ईसाई समुदाय ईशु की माँं मदर मेरी को सम्मानित करने के लिए यह त्यौहार मनाने लगा। वस्तुतः ’मातृ दिवस’ मनाने का मूल कारण मातृ शक्ति को सम्मान देना और एक शिशु के उत्थान में उसकी महान भूमिका को सलाम करना है।

पाश्चात्य सभ्यता में माँ के सम्मान में प्रत्येक वर्ष मई माह के दूसरे रविवार को ’’मदर्स डे’’ मनाया जाता है। मदर्स डे की शुरुआत अमेरिका से हुई। वहाँ एक कवयित्री और लेखिका जूलिया वार्ड होव ने 1870 में 10 मई को माँ के नाम समर्पित करते हुए कई रचनाएँ लिखीं। वे मानती थीं कि महिलाओं की सामाजिक जिम्मेदारी व्यापक होनी चाहिए। मदर्स डे को आधिकारिक बनाने का निर्णय अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने 8 मई, 1914 को लिया। 8 मई, 1914 को अन्ना की कठिन मेहनत के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने और माँ के सम्मान में एक दिन के अवकाश की सार्वजनिक घोषणा की। वे समझ रहे थे कि सम्मान, श्रद्धा के साथ माताओं का सशक्तीकरण होना चाहिए, जिससे मातृत्व शक्ति के प्रभाव से युद्धों की विभीषिका रुके। तब से हर वर्ष मई के दूसरे रविवार को ’मदर्स डे’ मनाया जाता है।  अमेरिका में मातृ दिवस (मदर्स डे) पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। अलग-अलग देशों में मदर्स डे अलग-अलग तारीख पर मनाया जाता है।

      अब भारत में भी पाश्चात्य देशों की तरह ’मदर्स डे’ को एक खास दिवस पर मनाने का महत्व बढ़ रहा है। इस दिन माँ के प्रति सम्मान-प्यार व्यक्त करने के लिए कार्ड्स, फूल व अन्य  उपहार भेंट किये जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में अभी भी इस दिवस के प्रति अनभिज्ञता है पर नगरों में यह एक फेस्टिवल का रूप ले चुका है। काफी हद तक इसका व्यवसायीकरण भी हो चुका है। 

   रिश्तों पर हावी होती स्वार्थपरता और व्यवसायकिता के बीच यह भी सोचने की जरूरत है कि रिश्ते कहीं किसी दिन विशेष के मोहताज न हो जाएं। माँ तो जननी है, वह अपने बच्चों के लिए हर कुछ बर्दाश्त कर लेती है। पर दुःख तब होता है जब माँ की सहनशीलता और स्नेह को उसकी कमजोरी मानकर उसके साथ दोयम व्यवहार किया जाता है। माँ के लिए बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जाता है, यह कला और साहित्य का एक प्रमुख विषय भी है, माँ के लिए तमाम संवेदनाएं प्रकट की जाती हैं पर माँ अभी भी अकेली है। जिन बेटों-बेटियों को उसने दुनिया में सर उठाने लायक बनाया, शायद उनके पास ही माँ के लिए समय नहीं है। अधिकतर घरों में माँ की महत्ता को गौण बना दिया गया है। आज भी माँ को अपनी संतानों से किसी धन या ऐश्वर्य की लिप्सा नहीं, वह तो बस यही चाहती है कि उसकी संतान जहाँ रहे खुश रहे। पर माँ के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह में यह पीढ़ी बहुत पीछे है। माँ के त्याग, तपस्या, प्यार का न तो कोई जवाब होता है और न ही एक दिन में इसका कोई कर्ज उतारा जा सकता है। मत भूलिए कि आज हम-आप जैसा अपनी माँ से व्यवहार करते हैं, वही संस्कार अगली पीढि़यों में भी जा रहे हैं।

- आकांक्षा यादव

शनिवार, 10 मई 2014

प्रचार ख़त्म, अब कैसा महसूस कर रहे नेतागण

लोकसभा चुनाव के लिए चुनाव प्रचार अंतत: आज ख़त्म हो गए। अंतिम दौर का मतदान 12 मई को और फिर 16 मई को सभी के भाग्य का फैसला।  दावे, सर्वे, वादे ..... इन सबके बावजूद लोकतंत्र में जनता अंतत : किस करवट  बैठेगी, कोई दावे के साथ नहीं जानता। 

जरा सोचिये, प्रचार ख़त्म होने के बाद अब कैसा महसूस कर रहे होंगे नेतागण। हर किसी का दिल धक-धक कर रहा होगा तो उनमें सत्ता के गुलाबी सपने भी तैर रहे होंगे।  

नरेंद्र मोदी : अंतत : ख़त्म हो गया चुनाव प्रचार।  बड़ी मेहनत की मैंने।  अब जल्दी से रिजल्ट आए तो पता चले। काश घडी की इन सुईयों को मैं तेजी से चला  सकता। अब तो इंतज़ार भी नहीं होता।  

राहुल गाँधी : माँ चिंता न करो।  मेहनत तो बहुत की हमने।  पता नहीं जनता का रिस्पांस कैसा रहेगा। आपकी विरासत भी मुझे ही संभालनी है अब। शायद ऐसा ही कुछ सोच कर माँ को तसल्ली दे रहे हैं राहुल गाँधी. 

अरविन्द केजरीवाल : चलो चुनावी प्रचार ख़त्म हुआ।  बहुत दिन हो गए दिल्ली छोड़े, यहाँ बनारस में तो बोर हो गया। दो-चार दिन घर घूम आते हैं। 


बुधवार, 7 मई 2014

लोकतंत्र के महाउत्सव में भागीदारी

हाथ की अंगुली पर लगी यह काली स्याही लोकतंत्र के माथे की बिंदिया है।  यह लोकतंत्र के माथे पर लगे  उस काले टीके की तरह भी है, जो इसे  बुरी नज़रों से बचाता है। अत: इस काले टीके को ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोगों की अँगुलियों में लगना चाहिए, ताकि भारतीय लोकतंत्र और मजबूत हो  और इसे किसी की  बुरी  नज़र न लगे !!



आज 7 मई, 2014 को हमने भी अपने जीवन का प्रथम वोट फूलपुर लोकसभा क्षेत्र हेतु इलाहाबाद में वोट डाला। कभी इस क्षेत्र की नुमाइंदगी लोकसभा में देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू किया करते थे। अब तो यहाँ बहुत सारे पैमाने बदल चुके हैं।  फ़िलहाल,  अब रिजल्ट का इंतज़ार !!





लोकतंत्र के इस महाउत्सव में एक आहुति हमारी भी।  इलाहाबाद में वोट  !!


गुरुवार, 1 मई 2014

स्त्री-पुरुष विभेद की मानसिकता

स्त्री और पुरुष में विभेद की मानसिकता बाल-मन में कैसे आती है, यह सवाल लम्बे समय से उठ रह है। हमारा परिवार, परिवेश और स्कूली शिक्षा कहीं-न-कहीं जाने या अनजाने ऐसी बातों को बढ़ावा देते हैं।  ऐसे में जरुरी है कि इस मानसिकता में बदलाव के लिए पहल की जाए। यहाँ तक कि स्कूली पाठ्यक्रम में यह विभेद खुलकर प्रतिबिंबित होता है। आज जब स्त्री-पुरुष दोनों कदम से कदम मिलकर हर क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं, ऐसे में पुस्तकों के  अध्यायों में  नारी  को केवल घरेलू कामकाजी महिला के रूप में दर्शाया जाता है और पुरुष को ऑफिस में कार्य करते।  कई बार ये पुस्तकें स्त्री की छवि को केवल नर्स, डाक्टर या फिर टीचर तक सीमित करने का काम करती हैं, जबकि पुरूषों को पायलट, कलाकार, अंतरिक्ष यात्री, जादूगर, शासक, डाकिया, सब्जी विक्रेता, मोची, लाइब्रेरियन, ड्राइवर, नाटककार, संगीतकार, एथलीट, विद्वान, पहलवान, पुलिसमैन, खिलाड़ी आदि के रूप में दिखाया जाता है।  

 ऐसे में एक पहल के तहत  केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद ने कक्षा एक से पांँच तक की अपनी एनसीईआरटी पाठ्य पुस्तकों से ऐसे शब्दों और चित्रों को हटाने का फैसला किया है जिनसे लिंगभेद की बू आती हो। मसलन, हिंदी की कविता ’पगड़ी’ और ’पतंग’  औरत की नकारात्मक छवि दर्शाती है। पतंग में यह दिखाने की कोशिश  की गई है कि पतंग केवल लड़के ही उड़ा सकते हैं। इसी प्रकार एनसीईआरटी की कक्षा तीन की पर्यावरण पुस्तक में एक औरत को कुंँए से पानी खींचते हुए दिखाया गया है। मानो यह काम सिर्फ महिलाओं का ही हो। विभेद को ख़त्म करने के लिये परिषद द्वारा मिल्कमैन, पुलिसमैन जैसे शब्दों की बजाय अब पाठ्यपुस्तकों में मिल्कपर्सन, पुलिसपर्सन जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाएगा। 

वस्तुत: एनसीईआरटी के डिपार्टमेंट आॅफ वुमेन्स स्टडीज ने इस पर व्यापक शोध करने के बाद ऐसे शब्दों और चित्रों को पाठ्यपुस्तकों से हटाने का निर्णय लिया है। एनसीईआरटी का मानना है कि इससे स्कूली बच्चे इन फर्क के बारे में सोचेंगे नहीं और लड़का-लड़की का फर्क कम से कम किताबों में न झलके। परिवर्तन गणित, अंग्रेजी, हिंदी और कहानी की किताबों में किया गया है। कहानियों का चयन भी ऐसा होगा जिससे लिंग समानता की सीख मिले। वैसे तमाम महिला संगठन इस बात की लंबे अरसे से मांग करती आ रही हैं कि ऐसे शब्दों के प्रयोग पर बैन लगे जिनसे पुरूष प्रधानता की दुर्गंध आती है। खैर, देर से ही सही पर इस एक कदम से कइयों की मानसिकता तो जरुर बदलेगी !!

- आकांक्षा यादव 
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