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रविवार, 22 सितंबर 2013

'इण्डिया टुडे' में बेटियों की मनोदशा पर तीन कविताएँ




बेटियाँ समाज की अमूल्य धरोहर हैं। इन्हें बचाकर-सहेजकर रखिये, नहीं तो सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।आज डाटर्स  डे है, यानि बेटियों का दिन। यह सितंबर माह के चौथे रविवार को मनाया जाता है। इस साल यह 22  सितम्बर को मनाया जा रहा है। गौरतलब है कि चाईल्‍ड राइट्स एंड यू (क्राई) और यूनिसेफ ने वर्ष 2007 के सितंबर माह के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर, 2007 को प्रथम बार 'डाटर्स-डे' मनाया था, तभी से इसे हर वर्ष मनाया जा रहा है।  इस पर एक व्यापक बहस हो सकती है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस दिन का महत्त्व क्या है, पर जिस तरह से अपने देश में लिंगानुपात कम है या भ्रूण हत्या जैसी बातें अभी भी सुनकर मन सिहर जाता है, उस परिप्रेक्ष्य में जरुर इस दिन का बहुत महत्त्व है। 


आज की बेटियाँ पहले जैसी नहीं रहीं। अब वो सवाल-जवाब करने लगी हैं। प्रतिरोध करने लगी हैं। संस्कारों को जीने के साथ-साथ अपनी नियति की बागडोर भी सँभालने लगी हैं। बेटियों से संबंधित मेरी तीन कविताएँ 'इण्डिया टुडे स्त्री' के मार्च 2010 में प्रकाशित हुई थीं।यह समाज में बेटियों की विभिन्न मनोदशाओं को दर्शाती हैं। आप भी पढ़िए -
21वीं सदी की बेटी

जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

एक लड़की

न जाने कितनी बार

टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में

हर किसी को देखती

याचना की निगाहों से

एक बार तो हाँ कहकर देखो

कोई कोर कसर नहीं रखूँगी

तुम्‍हारी जिन्‍दगी संवारने में

पर सब बेकार.


कोई उसके रंग को निहारता

तो कोई लम्‍बाई मापता

कोई उसे चलकर दिखाने को कहता

कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता

पर कोई नहीं देखता

उसकी आँखों में

जहाँ प्‍यार है, अनुराग है


लज्‍जा है, विश्‍वास है।


मैं अजन्मी

मैं अजन्मी
हूँ अंश तुम्हारा
फिर क्यों गैर बनाते हो
है मेरा क्या दोष
जो, ईश्वर की मर्जी झुठलाते हो

मै माँस-मज्जा का पिण्ड नहीं
दुर्गा, लक्ष्मी औ‘ भवानी हूँ
भावों के पुंज से रची
नित्य रचती सृजन कहानी हूँ

लड़की होना किसी पाप की
निशानी तो नहीं
फिर
मैं तो अभी अजन्मी हूँ
मत सहना मेरे लिए क्लेश
मत सहेजना मेरे लिए दहेज
मैं दिखा दूँगी
कि लड़कों से कमतर नहीं
माद्दा रखती हूँ
श्मशान घाट में भी अग्नि देने का

बस विनती मेरी है
मुझे दुनिया में आने तो दो !!!




शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन में ब्लागर दंपति आकांक्षा यादव- कृष्ण कुमार यादव सम्मानित

इंटरनेट पर हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार और ब्लागिंग के माध्यम से देश-विदेश में अपनी रचनाधर्मिता को विस्तृत आयाम देने वाले ब्लागर दम्पति कृष्ण कुमार यादव और  आकांक्षा  यादव को काठमांडू, नेपाल में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन में क्रमशः ''परिकल्पना साहित्य सम्मान'' एवं ''परिकल्पना ब्लाग विभूषण'' से नवाजा गया। नेपाल की विषम राजनीतिक परिस्थितियों के चलते मुख्य अतिथि नेपाल के राष्ट्रपति डा0 राम बरन यादव की अनुपस्थिति में यह सम्मान नेपाल सरकार के पूर्व शिक्षा व स्वास्थ्य मंत्री तथा संविधान सभा के अध्यक्ष अर्जुन नरसिंह केसी ने दिया। इस सम्मेलन में एकमात्र बाल ब्लागर के रूप में गल्र्स हाई स्कूल, इलाहाबाद की कक्षा 1 की छात्रा अक्षिता ने भी भाग लिया। 

इस अवसर पर यादव दम्पति सहित देश-विदेश के हिंदी, नेपाली, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मैथिली आदि भाषाओं के ब्लागर्स को भी सम्मानित किया गया। परिकल्पना समूह द्वारा आयोजित यह समारोह 13-15 सितम्बर के मध्य काठमांडू के लेखनाथ साहित्य सदन, सोरहखुटे सभागार में हुआ।

इस अवसर पर ’’न्यू मीडिया के सामाजिक सरोकार’’ सत्र में वक्ता के रूप में कृष्ण कुमार यादव ने बदलते दौर में न्यू मीडिया व ब्लागिंग व इसके सामाजिक प्रभावों पर विस्तृत चर्चा की, वहीं ’’साहित्य में ब्लागिंग की भूमिका’’ पर हुयी चर्चा को सारांशक रूप में आकांक्षा यादव ने मूर्त रूप दिया।

गौरतलब है कि इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं पद पर पदस्थ कृष्ण कुमार यादव एवं उनकी पत्नी आकांक्षा यादव एक लंबे समय से ब्लाग और न्यू मीडिया के माध्यम से हिंदी साहित्य एवं विविध विधाओं में अपनी रचनाधर्मिता को प्रस्फुटित करते हुये अपनी व्यापक पहचान बना चुके हैं।

(सम्मान चित्र : अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन, काठमांडू (13 सितम्बर, 2013 ) में आकांक्षा यादव को ''परिकल्पना ब्लॉग विभूषण'' से सम्मानित  करते नेपाल सरकार के पूर्व मंत्री तथा संविधान सभा के अध्यक्ष अर्जुन नरसिंह केसी जी। साथ में परिलक्षित हैं- कृष्ण कुमार यादव, बेटियाँ अक्षिता व अपूर्वा, परिकल्पना के संयोजक रवीन्द्र प्रभात  और वरिष्ठ नेपाली साहित्यकार कुमुद अधिकारी।)

                                                                     (साभार प्रकाशित)

बुधवार, 11 सितंबर 2013

'दामिनी' का न्याय बनाम 'आधी-आबादी'

आज फैसले की घड़ी है। दामिनी रेप केस के अभियुक्तों को न्यायालय द्वारा सजा सुनाये जाने का महत्वपूर्ण दिन है। पर क्या वाकई यह फैसला एक मील का पत्थर साबित होगा। क्या इस फैसले के बाद आधी आबादी का 'दामिनी' जैसा हश्र नहीं होगा। भारत में एक नहीं कई दामिनियाँ हैं, जिनके दामन को रोज कलंकित किया जाता है। दिल्ली, मुंबई और राजधानियों की घटनाएँ तो खबर बनकर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं, पर दूरदराज इलाकों में भी स्थिति बहुत अच्छी  नहीं है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो भारत में हर वर्ष बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज हो  रही है। वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार के कुल 7,112 मामले सामने आए, जबकि 2010 में 5,484 मामले ही दर्ज हुए थे। आंकड़ों के हिसाब से एक वर्ष में बलात्कार के मामलों में 29.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। राजधानी दिल्ली का तो बेहद बुरा हाल है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ही आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। 2007 से 2011 की अवधि के दौरान अर्थात चार साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस मामले में दिल्ली नंबर वन रही। एनसीबी के आंकड़ों के मुताबिक देश की राजधानी लगातार चौथे साल बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में साल 2011 में रेप के 568 मामले दर्ज हुए, जबकि मुंबई में 218 मामले दर्ज हुए।

राज्यों की बात करें तो मध्यप्रदेश इस मामले में सबसे ऊपर है। मप्र में रेप के सबसे अधिक 15,275 मामले दर्ज किए गए। पश्चिम बंगाल में 11,427, यूपी में 8834 और असम में 8060 मामले दर्ज किये गए। 7703 रेप केस के साथ महाराष्ट्र इस सूची में पांचवें नंबर पर है यानी कुल 51 हजार 299 बलात्कार हुए। हल ही में मुंबई में दिनदहाड़े हुए महिला पत्रकार का बलात्कार इसका ज्वलंत उदाहरण है।

मात्र दर्ज मामलों के आधार पर  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस प्रकार भारतभर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी अस्मत गंवा देती हैं। ‘विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, 'भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ वहीं महिलाओं के विकास के लिए केंद (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) अनुसार, ‘भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ट्रस्ट लॉ वोमेन द्वारा किए गए हालिया सर्वेक्षण के अनुसार भारत स्त्रियों के लिए दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश है।

बलात्कार की घटनाएँ जिस तरह बढ़ रही हैं, वह हमारे संस्कार, पारिवारिक मूल्यों, परिवेश और स्कूली शिक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। 'आधी आबादी' का सर्वप्रथम शोषण घर से ही शुरू होता है। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर बलात्कार जान-पहचान वाले लोग ही करते हैं। इसी आधार पर ‘रेप क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर’ ने दिल्ली में 2010 के शुरु से जुलाई 2011 में हुए बलात्कारों पर दर्ज एफ.आइ.आर. का गहन अध्ययन किया तो चौंकाने  नतीजे सामने आए। इसमें यह पाया गया कि 66%  बलात्कार-पीड़ित लड़कियां बीस साल की उम्र के नीचे की हैं जिनमें 22% की उम्र तो  दस साल के भी नीचे है। दूसरी ओर 67% बलात्कारी की उम्र बीस साल के ऊपर है। अधिकतर मामलों में पाया गया कि बलात्कारी मूलतः पीड़ित लड़की के जाने-पहचाने होते हैं जिनमें रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त, शिक्षक और अन्य निकट संबंधी होते हैं। अपरिचितों द्वारा बलात्कार के मामले उतने ज्यादा नहीं हैं।मसलन् 58 पीड़ितों में 51 जान-पहचान के और बाकी 7 अपरिचित होते हैं। ऐसे में बलात्कार  के मामलों की जांच में जुटे पुलिस अधिकारियों का मानना है कि ऐसे अधिकतर मामलों में आरोपी को पीड़िता के बारे में जानकारी होती है। ऐसे में कई बार यह एक क़ानूनी से ज्यादा सामाजिक समस्या बन जाती है है और ऐसे अपराधों पर नकेल कसने के लिए सिर्फ क़ानूनी ही नहीं, सामाजिक रूप से भी सशक्त पहल करनी होगी। अधिकारियों की मानें तो इनमें से अधिकांश मामले बेहद तकनीकी होते हैं। अक्सर ऐसे अपराध दोस्तों या रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं, जो पीड़िता को झूठे वादे कर बहलाते हैं, फिर गलत काम करते हैं। कई बार ऐसे अपराध अज्ञात लोग करते हैं और पुलिस की पहुंच से आसानी से बच निकलते हैं। हालांकि कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि इसमें पीड़िता की रजामंदी होती है, उसे इस बात के लिए रजामंद कर लिया जाता है। पर बाद में कुछ कारणों से इसे दूसरा रूप दे दिया जाता है।

 बलात्कार सिर्फ एक शारीरिक दुष्कृत्य नहीं है, बल्कि यह समग्र नारी अस्मिता से जुड़ा  सवाल है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि बलात्कार से पीड़ित महिला बलात्कार के बाद स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है, और जीवनभर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जिसे उसने नहीं किया। 

...ऐसे में सवाल  उठना लाजिमी है कि क्या 'दामिनी' केस में सुनाया गया फैसला सिर्फ एक फैसला होगा या यह आधी आबादी की सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है।

- आकांक्षा यादव : शब्द-शिखर @ www.shabdshikhar.blogspot.com/ 

बुधवार, 4 सितंबर 2013

'मजदूर' की बेटी, पर 'मजबूर' नहीं, 7 साल में हाईस्कूल, 13 साल में एमएससी

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती, वह अपना रास्ता खुद ही बना लेती है। तभी तो महज सात साल की उम्र में हाईस्कूल पास कर रिकॉर्ड बनाने वाली वंडर गर्ल के नाम से मशहूर लखनऊ की सुषमा वर्मा अब 13 साल की उम्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में मास्टर ऑफ साइंस (एमएससी) में दाखिला लेने के बाद एक बार फिर सुर्खियों में हैं। सुषमा वही होनहार लडकी है जिसने सिर्फ़ 7 साल की उम्र में 10वीं और 9 साल की उम्र में 12वीं पास कर देश भर में सुर्ख़ियाँ बटोरी थी. सुषमा ने कहा कि वह एम.बी.बी.एस. कोर्स ज्वाइन करना चाहती थी. लेकिन, 17 वर्ष की उम्र प्राप्त करने से पहले वह ऐसा नहीं कर सकती. अतः वह लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.एस-सी. कोर्स ज्वाइन कर रही है.

लखनऊ के कृष्णानगर निवासी श्रमिक तेज बहादुर वर्मा की बेटी सुषमा ने महज सात साल की उम्र में हाईस्कूल, नौ साल की उम्र में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की है। उसने सिटी मान्टेसरी स्कूल (सीएमएस) डिग्री कॉलेज से इसी साल बीएससी की डिग्री हासिल की। अब वह तेरह साल की उम्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में एमएससी करने जा रही है। उसने एमएससी माइक्रोबायलॉजी में दाखिला लिया है। सुषमा इन दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय के दूसरे छात्रों के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है। उसके तमाम सहपाठी लगभग दोगुने उम्र के हैं। ऐसे में हर छात्र सुषमा से उसकी कामयाबी की कहानी सुनना चाहते हैं। छात्रों का कहना है कि सुषमा हमारे लिए एक मिसाल है, जिससे हमें चुनौतियों के बावजूद आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।

बेहद गरीब परिवार से संबंध रखने वाली सुषमा का नाम एमएससी माइक्रोबायोलॉजी में दाखिले की कटऑफ सूची में आने के बाद एडमिशन फीस भरने में अड़चने आईं। लेकिन होनहार सुषमा की मदद के लिए कई हाथ आगे बढ़े। लखनऊ विश्वविद्यालय के चीफ प्राक्टर डॉ़ मनोज दीक्षित का कहना है कि सुषमा किसी चमत्कार से कम नहीं। ऐसे में समाज की जिम्मेदारी बनती है कि इसकी हर तरह से मदद की जाए। उन्होंने बताया कि गीतकार जावेद अख्तर और अमेरिका में माइक्रोसॉफ्ट में कार्यरत अनिवासी भारतीय रफत सरोस ने सुषमा की पढ़ाई में आने वाले खर्च में मदद का भरोसा दिया है। 

सुषमा के पिता तेज बहादुर कहते हैं कि घर की माली हालत ठीक न होने की वजह से मुझे अपनी बेटी को पढ़ाने में दिक्कतें आ रही थीं, लेकिन मैं उन सभी लोगों का बहुत आभारी हूं जिन्होंने मदद के लिए हाथ बढ़ाया है। बहादुर ने कहा कि बिना लोगों की मदद के मैं अपनी बेटी की फीस भरकर उसे एमएससी में दाखिला नहीं दिला सकता था। सुलभ इंटनेशनल के प्रमुख बिंदेश्वरी पाठक ने भी सुषमा की पढ़ाई में मदद के लिए पांच लाख रुपये देने की बात कही है। अगले सप्ताह वह स्वयं लखनऊ आकर सुषमा के पिता को पांच लाख रुपये देंगे।

सुषमा कहती है कि लखनऊ विश्वविद्यालय से माइक्रोबायलॉजी के बाद पीएचडी करना चाहती हूं और 18 साल की होने पर सीपीएमटी की परीक्षा दूंगी। घर की हालत देखते हुए अभी तक यह सब बहुत मुश्किल लग रहा था, लेकिन लोगों की मदद से उम्मीद जगी है कि मैं अपना मुकाम हासिल कर लूंगी। अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़ने वाली सुषमा को बी एस अब्दुर्रहमान विश्वविद्यालय, चेन्नई की तरफ से मुफ्त एमएससी की पढ़ाई का भी ऑफर मिला है।