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गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

अब करेंसी नोट भी प्लास्टिक के

कागज के नोट तो हम सभी ने देखे होंगे, पर प्लास्टिक के नोट मात्र खिलौनों के रूप में ही देखे होंगे। आने वाले दिनों में प्लास्टिक के नोट ही दिखेंगे। ये वास्तव में पाॅलीमर ;एक तरह की प्लास्टिकद्ध के बने होंगे एवं पर्यावरण के अनुकूल भी होंगे। जरूरत पड़ने पर इनकी रिसाइकलिंग भी की जा सकती है। जहाँ कागज के नोट गंदे होकर सड़ जाते हैं, वहीं इन्हें गंदा होने पर साबुन से साफ भी किया जा सकता है। अर्थात पाॅलीमर नोटों की उम्र कागज के नोटों की अपेक्षा अधिक होगी।

पाॅलीमर नोट का विश्व में सर्वप्रथम इस्तेमाल आस्ट्रेलिया द्वारा वर्ष 1992 में आरम्भ किया गया। यहाँ तक कि चीन, नेपाल, बांग्लादेश व श्रीलंका जैसे देशों में भी पाॅलीमर नोट प्रचलन में हैं। ऐसे में भारतीय रिजर्व बैंक भी भारत में पाॅलीमर नोट आरम्भ करने की सोच रहा है। आरंभ में प्रायोगिक तौर पर इन्हें दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई व बेंगलूर जैसे महानगरों में आरंभ किया जा सकता है और फिर धीरे-धीरे पूरे देश में इनका विस्तार किया जाएगा। शुरूआत दस रूपये के पाॅलीमर नोटों से की जाने की संभावना है और बाद में बड़ी करेंसी के पाॅलीमर नोट भी जारी किए जाएंगे ।

पाॅलीमर नोट से जहाँ करेंसी नोटों की आयु बढ़ेगी, वहीे इससे जाली नोटों पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा। गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष 1935 में 135 हजार करोड़ रूपये के सापेक्ष वर्ष 2008-09 में 7 लाख करोड़ रूपये के नोट छापे। ऐसे में रिजर्व बैंक को पाॅलीमर नोट की स्थिति में कम ही नोट छापने पड़ेंगे, क्योंकि इनके गंदे होकर नष्ट होने की संभावना काफी कम हो जाएगी।

भारत सरकार फिलहाल करेंसी नोट के कागजों का आयात करती है, जिनसे देश मंे ही कागज के नोटों का मुद्रण किया जाता है। मुख्य आपूर्तिकर्ता देश ब्रिटेन है। अब तक के इतिहास में मात्र एक बार वर्ष 1997-98 में भारतीय रिजर्व बैंक ने देश से बाहर करेंसी का मुद्रण कराया था। इनमें अमेरिका की अमेरिकन नोट कंपनी, ब्रिटेन की थामस डी ला रू और जर्मनी की जीसेक एंड डेवरिएंट कंसोर्टियम से क्रमशरू 100रू0, 100रू0 व 500रू0 के कुल एक लाख करोड़ रूपये की भारतीय करेंसी छपवाई गई थी। ऐसे मामलों में कई बार जोखिम भी हो सकता है। यदि किसी कंपनी ने दिए गए आर्डर से ज्यादा संख्या में करेंसी छापकर उनका दुरूपयोग करना आरंभ किया तो अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध होगा। इसी प्रकार करेंसी नोटों के कागजों का स्वदेश में उत्पादन की बजाय अन्य देशों पर आपूर्ति हेतु निर्भरता खतरे से खाली नहीं कहा जा सकता। फिलहाल करेंसी नोट के उत्पादन में प्रति वर्ष 18 हजार टन कागज का प्रयोग किया जाता है। भारत सरकार ने इस संबंध में देश में ही करेंसी नोटों के कागज के उत्पादन के लिए सार्थक पहल करते हुए मैसूर में 1500 करोड़ रूपये लागत से एक कारखाना प्रस्तावित किया है, जहाँ प्रति वर्ष 12 हजार टन करेंसी नोट के कागजों का उत्पादन होना संभावित है।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

कहाँ गईं वो तितलियाँ

आपको बचपन की तितलियाँ याद होंगीं. बिना तितलियों के बचपन क्या. यहाँ तक कि कोर्स में भी तितलियों की कविता पढने को मिलती थी. कभी ये तितलियाँ परी लगतीं तो कभी उनके साथ उड़ जाने का मन करता. पर अब तो जल्दी कोई तितली नहीं दिखती। तितली देखते ही बचपन में खुश होकर ताली बजाने और फिर उसके पीछे दौड़ने की यादें धीरे-धीरे धुंधली पड़ रही हैं. हम लोग बचपन में तितलियाँ पकड़ने के लिए घंटों बगीचे में दौड़ा करते थे। उनके रंग-बिरंगे पंखों को देखकर खूब खुश हुआ करते थे। पर अब तो लगता है कि फिजाओं में उड़ते ये रंग ठहर से गए हैं। अब रंगों से भरी तितलियाँ सिर्फ किस्से-कहानियों और किताबों तक सिमट गई हैं। जो तितली घर-घर के आसपास दिखती थी वह न जाने कहाँ विलुप्त होती गई और बड़े होने के साथ ही हम लोगों ने भी इस ओर गौर नहीं किया।

वस्तुतः तितलियों के कम होने के पीछे दिन पर दिन कम होते पेड़-पौधे काफी हद तक जिम्मेदार हैं। यही नहीं, घरों के बगीचों में फूलों पर कीटनाशक का प्रयोग तितलियों के लिए बहुत घातक साबित हो रहा है। तितलियों का फिजा से गायब होना बड़ा शोचनीय है। यह बिगड़ते पर्यावरण की तस्वीर है। ऐसा माना जाता है कि जहाँ तितलियाँ दिखती हैं वहाँ का पर्यावरण संतुलित होता है। अगर बात तितलियों के विभिन्न स्वरूपों की तो डफर बैंडेड, डफर टाइगर, क्रो स्पाटेड, डार्की क्रिमलेट, एंगल डार्किन, लीज ब्लू, ओक ब्लू, ब्लू फूजी, टिट आरकिड, क्यूपिट मूर, सफायर, बटरलाई मूथ, रायल चेस्टनेट, पीकाक हेयर स्ट्रीक, राजा चेस्टनट, इम्परर गोल्डन और मोनार्क जैसी तितलियाँ पर्यावरण को संतुलित रखने में खासा योगदान देती हैं। पर ये सभी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं।

ऐसे में आज के बच्चों से पूछिए तो उन्हें तितलियों के रंग किताबों में या फिर किसी श्रृंगार रस की कविता में ही दिखाई देते हैं। न उन्हें तितलियाँ दिखाई देती हैं न उन्हें पकड़ने के लिए वे लालायित रहते हैं। क्रिकेट, मूवी, कंप्यूटर गेम और इंटरनेट ही उनकी रंगीन दुनिया है। आखिर बच्चे भी क्या करें, शहर में कम होते पेड़ --पौधों की वजह से तितलियों को अपना भोजन नहीं मिल पा रहा। घरों में जो लोग बागवानी करते हैं वो अपने पौधों को कीटों से बचाने के लिए उसके ऊपर कीटनाशक स्प्रे कर देते हैं। इससे फूल जहरीला बन जाता है और जब तितली पेस्टीसाइड ग्रस्त इस फूल का परागण करती है तो मर जाती है। आखिर इन सबके बीच तितलियाँ कहाँ से आयेंगीं !!

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

अन्याय पर न्याय की विजय का प्रतीक है दशहरा

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।

दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है।

कृष्ण कुमार यादव

आप सभी को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

तुलसीदास ने सर्वप्रथम आरंभ की रामलीला

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)

भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक होता है। यही कारण है कि उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण व शिक्षाप्रद बनाने हेतु एवं सामाजिक सहयोग कायम करने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी मंचन किया जाता है। यहाँ तक कि भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में लिखा है कि- "देवता चंदन, फूल, अक्षत, इत्यादि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना कि संगीत नृत्य और नाटक से होते हैं।''

सर्वप्रथम राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाने के निमित्त बनारस में हर साल रामलीला खेलने की परिपाटी आरम्भ की। एक लम्बे समय तक बनारस के रामनगर की रामलीला जग-प्रसिद्ध रही, कालांतर में उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा और आज तो रामलीला के बिना दशहरा ही अधूरा माना जाता है। यहाँ तक कि विदेशों मे बसे भारतीयों ने भी वहाँ पर रामलीला अभिनय को प्रोत्साहन दिया और कालांतर में वहाँ के स्थानीय देवताओं से भगवान राम का साम्यकरण करके इंडोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस इत्यादि देशों में भी रामलीला का भव्य मंचन होने लगा, जो कि संस्कृति की तारतम्यता को दर्शाता है।
(क्रमश :, आगामी- अन्याय पर न्याय की विजय का प्रतीक है दशहरा)

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

दशहरे पर रावण की पूजा

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। सामान्यतः त्यौहारों का सम्बन्ध किसी न किसी मिथक, धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं और ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा होता है। दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन 'दश' व 'हरा' से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है। रावण में कुछ अवगुण जरुर थे, लेकिन उसमें कई गुण भी मौजूद थे, जिन्हे कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में उतार सकता है। यदि रामायण या राम के जीवन से रावण के चरित्र को निकाल दिया जाएए तो संपूर्ण रामकथा का अर्थ ही बदल जाएगा। स्वयं राम ने रावण के बुद्धि और बल की प्रशंसा की है। रावण-वध के बाद भगवान राम ने अनुज लक्ष्मण को रावण के पास शिक्षा लेने के लिए भेजा था। पहले तो लक्ष्मण रावण के सिर के पास बैठे, पर जब रावण ने इस स्थित में उन्हें शिक्षा देने से इन्कार कर दिया, तो लक्ष्मण ने एक शिष्य की तरह रावण के चरणों के पास बैठकर शिक्षा ली।

रावण दैत्यराज सुमाली की पुत्री कैकशी एवं विद्वान ब्राहमण विश्रव का पुत्र था। दैत्यराज सुमाली अपनी बेटी कैकशी का विवाह एक ऐसे व्यक्ति से करना चाहते थे जो उन्हें एक योग्य एवं अति बलवान उत्तराधिकारी दे सके। जब दैत्यराज की इस इच्छा पर कोई भी खरा नहीं उतरा तो कैकशी ने स्वयं विद्वान ब्राहमण विश्रव का चयन किया। विवाह के वक्त ही विश्रव ने कैकशी से कहा था कि चूँकि तुमने मेरा चुनाव गलत क्षण में किया है, अतः तुम्हारा पुत्र बुराई के मार्ग पर जायेगा। रावण के जन्म के समय उसके पिता विश्रव को जब यह ज्ञात हुआ कि उनके बेटे में दस लोगों के बराबर बौद्धिक बल है, तो उन्होंने उसका नाम ‘दशानन‘ रख दिया। रावण के दशानन होने के संबंध में एक अन्य किंवदन्ती है कि उसके विद्धान-ब्राहमण पिता विश्रव ने उसे एक बेशकीमती रत्नों का हार पहनाया था, जिसकी खासियत यह थी कि उससे निकलने वाले प्रकाश से लोगों को रावण के दस सिर और बीस हाथ होने का आभास होता था। अपने माता-पिता के चलते रावण में दैत्य और ब्राहमण दोनों के गुण थे। रावण को न केवल शास्त्रों बल्कि 64 कलाओं में महारत हासिल थी। यहाँ तक कि उसे हाथी और गाय को भी प्रशिक्षित करने की कला का ज्ञान था।

यदि हम अलग.अलग स्थान पर प्रचलित राम कथाओं को जानें, तो रावण को बुरा व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। जैन धर्म के कुछ ग्रंथों में रावण को प्रतिनारायण' कहा गया है। रावण समाज सुधारक और प्रकांड पंडित था। तमिल रामायणकार 'कंब' ने उसे सद्चरित्र कहा है। रावण ने सीता के शरीर का स्पर्श तक नहीं कियाए बल्कि उनका अपहरण करते हुए वह उस भूखंड को ही उखाड़ लाता है, जिस पर सीता खड़ी हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि रावण जब सीता का अपहरण करने आयाए तो वह पहले उनकी वंदना करता है। 'मन मांहि चरण बंदि सुख माना।' महर्षि याज्ञवल्क्य ने इस वंदना को विस्तारपूर्वक बताया है। 'मां' तू केवल राम की पत्नी नहींए बल्कि जगत जननी है। राम और रावण दोनों तेरी संतान के समान हैं। माता योग्य संतानों की चिंता नहीं करतीए बल्कि वह अयोग्य संतानों की चिंता करती है। राम योग्य पुरुष हैंए जबकि मैं सर्वथा अयोग्य हूंए इसलिए मेरा उद्धार करो मां। यह तभी संभव हैए जब तू मेरे साथ चलेगी और ममतामयी सीता उसके साथ चल पड़ी।

ज्योतिष और आयुर्वेद का ज्ञाता लंकापति रावण तंत्र।मंत्रए सिद्धि और दूसरी कई गूढ़ विद्याओं का भी ज्ञाता था। ज्योतिष विद्या के अलावाए उसे रसायन शास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त था। उसे कई अचूक शक्तियां हासिल थींए जिनके बल पर उसने अनेक चमत्कारिक कार्य संपन्न किए। श्रावण संहिताश् में उसके दुर्लभ ज्ञान के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। वह राक्षस कुल का होते हुए भी भगवान शंकर का उपासक था। उसने लंका में छह करोड़ से भी अधिक शिवलिंगों की स्थापना करवाई थी। यही नहींए रावण एक महान कवि भी था। उसने श्शिव ताण्डव स्त्रोत्मश् की। उसने इसकी स्तुति कर शिव भगवान को प्रसन्न भी किया। रावण वेदों का भी ज्ञाता था। उनकी ऋचाओं पर अनुसंधान कर विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता अर्जित की। वह आयुर्वेद के बारे में भी जानकारी रखता था। वह कई जड़ी.बूटियों का प्रयोग औषधि के रूप में करता था।

रावण भगवान शिव का भक्त होने के साथ-साथ महापराक्रमी भी था। इसी तथ्य के मद्देनजर आज भी कानपुर के शिवाला स्थित कैलाश मंदिर में विजयदशमी के दिन दशानन रावण की महाआरती की जाती है। सन् 1865 में श्रृंगेरी के शंकराचार्य की मौजूदगी में महाराज गुरू प्रसाद द्वारा स्थापित इस मंदिर में शिव के साथ उनके प्रमुख भक्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। कालांतर में सन् 1900 मंे महाराज शिवशंकर लाल ने कैलाश मंदिर परिसर में शिवभक्त रावण का मंदिर बनवाया और देवी के तेइस रूपों की मूर्ति भी स्थापित की। वस्तुतः इसके पीछे यह तर्क था कि भक्त के बगैर ईश्वर अधूरे हैं, इसीलिए भगवान शंकर के मंदिर के बाहर उनके अनन्य भक्त रावण का भी मंदिर बनाया गया। तभी से रावण की महाआरती की परम्परा यहाँ पर कायम है। कानपुर से सटे उन्नाव जिले के मौरावां कस्बे में भी राजा चन्दन लाल द्वारा सन् 1804 में स्थापित रावण की मूर्ति की पूजा की जाती है। यहाँ दशहरे के दिन रामलीला मैदान में 7-8 फुट ऊँचे सिंहासन पर बैठे रावण की विशालकाय पत्थर की मूर्ति की लोग पूजा करते हैं, जबकि एक अन्य पुतला बनाकर रावण दहन करते हैं।

मध्य प्रदेश के मंदसौर में नामदेव वैश्य समाज के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी मंदसौर की थी। अतः रावण को जमाई मानकर उसकी खतिरदारी यहाँ पर भव्य रूप में की जाती है। यहाँ पर रावण के समक्ष मनौती मानने और पूरी होने के बाद रावण की वंदना करने व भोग लगाने की परंपरा रही है। हाल ही में यहाँ रावण की पैतीस फुट उंची बैठी हुई अवस्था में कंक्रीट मूर्ति स्थापित की गई है। इसी प्रकार जोधपुर के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी यहाँ की पूर्व राजधानी मंडोर की रहने वाली थीं व रावण व मंदोदरी के विवाह स्थल पर आज भी रावण की चवरी नामक एक छतरी मौजूद है। हाल ही में अक्षय ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र ने जोधपुर के चांदपोल क्षेत्र में स्थित महादेव अमरनाथ एवं नवग्रह मंदिर परिसर में रावण का मंदिर बनाने की घोषणा की है। इसमें रावण की मूर्ति शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए बनायी जा रही है, जिससे रावण की शिवभक्ति प्रकट होगी और उसका सम्मानीय स्वरूप सामने आयेगा।

मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित रावणगाँव में रावण को महात्मा या बाबा के रूप में पूजा जाता है। यहाँ रावण बाबा की करीब आठ फीट लंबी पाषाण प्रतिमा लेटी हुयी मुद्रा में है और प्रति वर्ष दशहरे पर इसका विधिवत श्रृंगार करके अक्षत, रोली, हल्दी व फूलों से पूजा करने की परंपरा है। चूंकि रावण की जान उसकी नाभि में बसती थी, अतः यहाँ पर रावण की नाभि पर तेल लगाने की परंपरा है अन्यथा पूजा अधूरी मानी जाती है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ग्रेटर नोएडा के मध्य स्थित बिसरख गाँव को रावण का पैतृक गाँव माना जाता है। बताते हैं कि रावण के पिता विश्रवामुनि इस गाँव के जंगल में शिव भक्ति करते थे एवं रावण सहित उनके तीनों बेटे यहीं पर पैदा हुए। विजय दशमी के दिन जब चारो तरफ रावण का पुतला फूका जाता है, तो बिसरख गाँव के लोग उस दिन शोक मनाते हैं। इस गाँव में दशहरा का त्यौहार नहीं मनाया जाता है। गाँववासियों को मलाल है कि रावण को पापी रूप में प्रचारित किया जाता है जबकि वह बहुत तेजस्वी, बुद्विमान, शिवभक्त, प्रकाण्ड पण्डित एवं क्षत्रिय गुणों से युक्त था। महाराष्ट्र के अमरावती और गढ़चिरौली जिले में 'कोरकू' और 'गोंड' आदिवासी रावण और उसके पुत्र मेघनाद को अपना देवता मानते हैं। अपने एक खास पर्व 'फागुन' के अवसर पर वे इसकी विशेष पूजा करते हैं।

उत्तर भारत में दशहरा का मतलब भले ही रावण दहन से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ हो, पर भारत के अन्य हिस्सों में ही इसे अन्य रूप में मनाया जाता है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है।
(क्रमश :, आगामी- तुलसीदास ने सर्वप्रथम आरंभ की रामलीला)

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

दशहरा और शस्त्र -पूजा

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)


दशहरे के दिन भारत में कुछ क्षेत्रों में शमी वृक्ष की पूजा का भी प्रचलन है। ऐसी मान्यता है कि अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट की गायों को कौरवों से छुड़ाने हेतु शमी वृक्ष की कोटर में छिपाकर रखे अपने गाण्डीव-धनुष को फिर से धारण किया। इस अवसर पर पाण्डवों ने गाण्डीव-धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष की पूजा कर कृतज्ञता व्यक्त की। तभी से दशहरे के दिन शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की भी पूजा होने लगी। पौराणिक कथाओं में भी शमी वृक्ष के महत्व का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार राजा रघु के पास जब एक साधु दान लेने आया तो राजा को अपना खजाना खाली मिला। इससे क्र्रोधित हो राजा रघु ने इन्द्र पर चढ़ाई की तैयारी कर दी। इन्द्र ने रघु के डर से अपने बचाव हेतु शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का कर दिया। तभी से यह परम्परा आरम्भ हुयी कि क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष पर तीर चलाते हैं एवं उससे गिरे पत्तों को अपनी पगड़ी में धारण करते हैं।

आज भी विजयदशमी पर महाराष्ट्र और राजस्थान में शस्त्र पूजा बड़े उल्लास से की जाती है। इसे महाराष्ट्र मंे ‘सीलांगण’ अर्थात सीमा का उल्लघंन और राजस्थान में "अहेरिया" अर्थात शिकार करना कहा जाता है। राजा विक्रमादित्य ने दशहरे के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना की थी तो छत्रपति शिवाजी को इसी दिन मराठों की कुलदेवी तुलजा भवानी ने औरगंजेब के शासन को खत्म करने हेतु रत्नजड़ित मूठ वाली तलवार "भवानी" दी थी, ऐसी मान्यता रही है। तभी से मराठा किसी भी आक्रमण की शुरूआत दशहरे से ही करते थे और इसी दिन एक विशेष दरबार लगाकर बहादुर मराठा योद्धाओं को जागीर एवं पदवी प्रदान की जाती थी। सीलांगन प्रथा का पालन करते हुए मराठे सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा करते व तत्पश्चात पूर्व निर्धारित खेत में जाकर पेशवा मक्का तोड़ते एवं तत्पश्चात सभी उपस्थित लोग मिलकर उस खेत को लूट लेते थे।

राजस्थान के राजपूत भी "अहेरिया" की परम्परा में सर्वप्रथम शमी वृक्ष व शस्त्रों की पूजा करते व तत्पश्चात देवी दुर्गा की मूर्ति को पालकी में रख दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर प्रतीकात्मक युद्ध करते। इतिहास इस परंपरा में "अहेरिया" के चलते दो युद्धों का गवाह भी बना- प्रथमतः, 1434 में बूंदी व चितौड़गढ़ के बीच इस परम्परा ने वास्तविक युद्ध का रूप धारण कर लिया व इसमें राणा कुम्भा की मौत हो गई। द्वितीयतः, महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने राजगद्दी पर आसीन होने के बाद पहली विजयदशमी पर उत्ताला दुर्ग में ठहरे मुगल फौजियों का असली अहेरिया (वास्तविक शिकार) करने का संकल्प लिया। इस युद्ध में कई राजपूत सरदार हताहत हुए। आज भी सेना के जवानों द्वारा शस्त्र-पूजा की परम्परा कायम है।
(क्रमश :, आगामी- दशहरे पर रावण की पूजा )

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा

(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज.आशा है आपको पसंद आयेगी-)

नवरात्र और दशहरे की बात हो और बंगाल की दुर्गा-पूजा की चर्चा न हो तो अधूरा ही लगता है। वस्तुतः दुर्गापूजा के बिना एक बंगाली के लिए जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। बंगाल में प्रथम सार्वजनिक दुर्गा पूजा कुल्लक भट्ट नामक धर्मगुरू के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने की पर यह समारोह पूर्णतया पारिवारिक था। बंगाल के पाल और सेनवशियों ने दूर्गा-पूजा को काफी बढ़ावा दिया। प्लासी के युद्ध (1757) में विजय पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु अपने हिमायती राजा नव कृष्णदेव की सलाह पर कलकत्ते के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा-पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्ण देव द्वारा की गई दुर्गा-पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारांे ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 मंे प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारांे से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राह्मणांे ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा-पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे-धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया।

बंगाल के साथ-साथ बनारस की दुर्गा पूजा भी जग प्रसिद्ध है। इसका उद्भव प्लासी के युद्ध (1757) पश्चात बंगाल छोड़कर बनारस में बसे पुलिस अधिकारी गोविंदराम मित्र (डी0एस0 पी0) के पौत्र आनंद मोहन ने 1773 में बनारस के बंगाल ड्यौड़ी मंे किया। प्रारम्भ में यह पूजा पारिवारिक थी पर बाद मे इसने जन-समान्य में व्यापक स्थान पा लिया। आज दुर्गा पूजा दुनिया के कई हिस्सों में आयोजित की जाती है। लंदन में प्रथम दुर्गा पूजा उत्सव 1963 में मना, जो अब एक बड़े समारोह में तब्दील हो चुका है।


(क्रमश :, आगामी- दशहरा और शस्त्र -पूजा)


मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

दशहरा के विविध रूप


(नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. इस पर क्रमश: प्रस्तुत है कृष्ण कुमार यादव जी के लेखों की सीरिज. आशा है आपको पसंद आयेगी-)

भारत विविधताओं का देश है, अतः उत्सवों और त्यौहारों को मनाने में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा काफी लोकप्रिय है। एक हफ्ते तक चलने वाले इस पर्व पर आसपास के बने पहाड़ी मंदिरों से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियाँ एक जुलूस के रूप में लाकर कुल्लू के मैदान में रखी जाती हैं और श्रद्धालु नृत्य-संगीत के द्वारा अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। वाड्यार राजाओं के काल में आरंभ इस दशहरे को अभी भी शाही अंदाज में मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण-सिंहासन प्रदर्शित किया जाता है। सुसज्जित तेरह हाथियों का शाही काफिला इस दशहरे की शान है। आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही ष्चक्रस्नानष् (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है।

केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से पूजा वैपू के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ष्पूजा इदप्पुष् के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है। तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हंै।

गुजरात मंे दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया-रास की झूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ष्गरबोष् के इर्द-गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का आह्मन करती हैं। गरबा के बाद डांडिया-रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया-रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है। महाराष्ट्र में दशहरे के दौरान नौ दिन तक माँ दुर्गा की पूजा होती है और दसवे दिन माँ सरस्वती की पूजा होती है। कश्मीर में नौ दिनों तक उपवास के बीच लोग प्रतिदिन झील के मध्य अवस्थित माता खीर भवानी मन्दिर के दर्शन के लिए जाते हैं.

(क्रमश : आगामी- जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा )

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

भ्रूण हत्या बनाम नौ कन्याओं को भोजन ??

नवरात्र मातृ-शक्ति का प्रतीक है। एक तरफ इससे जुड़ी तमाम धार्मिक मान्यतायें हैं, वहीं अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराकर इसे व्यवहारिक रूप भी दिया जाता है। लोग नौ कन्याओं को ढूढ़ने के लिए गलियों की खाक छान मारते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता है। आश्चर्य होता है कि यह वही समाज है जहाँ भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते है पर नवरात्र की बेला पर लोग नौ कन्याओं का पेट भरकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाय या कुछ और? आज बेटियां धरा से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में लोग नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं। यही नहीं लोग यह संवेदना भी जताने लगते हैं कि अगली बार बेटा ही होगा। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। आखिर यह दोहरापन किसके लिए ??

समाज बदल रहा है। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल ही में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों है कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहां महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता? समाज इस शक्ति की आराधना तो करता है पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। ऐसे में नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन मात्र कराकर क्या सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई ....???

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

एक क्रान्तिकारी महिला: दुर्गा भाभी (जयंती पर विशेष)

वर्ष 1927 का दौर। साइमन कमीशन का विरोध करने पर लाहौर में प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले शेरे-पंजाब लाला लाजपत राय पर पुलिस ने निर्ममतापूर्वक लाठी चार्ज किया, जिससे 17 नवम्बर 1928 को उनकी मौत हो गयी। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में यह एक गम्भीर क्षति थी। पूरे देश विशेषकर नौजवानों की पीढ़ी को इस घटना ने झकझोर कर रख दिया। लाला लाजपत राय की मौत को क्रान्तिकारियों ने राष्ट्रीय अपमान के रूप में लिया और उनके मासिक श्राद्ध पर लाठी चार्ज करने वाले लाहौर के सहायक पुलिस कप्तान साण्डर्स को 17 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह, चन्द्रशेखर व राजगुरु ने खत्म कर दिया। यह घटना अंगे्रजी सरकार को सीधी चुनौती थी, सो पुलिस ने क्रान्तिकारियों पर अपना घेरा बढ़ाना आरम्भ कर दिया। ऐसे में भगत सिंह व राजगुरु को लाहौर से सुरक्षित बाहर निकालना क्रान्तिकारियों के लिये टेढ़ी खीर थी। ऐसे समय में एक क्रान्तिकारी महिला ने सुखदेव की सलाह पर भगतसिंह और राजगुरु को लाहौर से कलकत्ता बाहर निकालने की योजना बनायी और फलस्वरूप एक सुनियोजित रणनीति के तहत यूरोपीय अधिकारी के वेश में भगत सिंह पति, वह क्रान्तिकारी महिला अपने बच्चे को लेकर उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर अंग्रेजी सरकार की आँखों में धूल झोंकते वहाँ से निकल लिये। यह क्रान्तिकारी महिला कोई और नहीं बल्कि चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर ‘दि फिलाॅसाफी आॅफ बम’ दस्तावेज तैयार करने वाले क्रान्तिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी वोहरा थीं, जो क्रान्तिकारियों में ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से प्रसिद्ध थीं।

7 अक्टूबर 1907 को रिटायर्ड जज पं0 बाँके बिहारी लाल नागर की सुपुत्री रूप में इलाहाबाद में दुर्गा देवी का जन्म हुआ। कुछ समय पश्चात ही पिताजी सन्यासी हो गये और बचपन में ही माँ भी गुजर गयीं। दुर्गा देवी का लालन-पालन उनकी चाची ने किया। जब दुर्गादेवी कक्षा 5वीं की छात्रा थीं तो मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह भगवतीचरण वोहरा से हो गया, जो कि लाहौर के पंडित शिवचरण लाल वोहरा के पुत्र थे। दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा 1921 के असहयोग आन्दोलन में काफी सक्रिय रहे और लगभग एक ही साथ भगतसिंह, धनवन्तरी और भगवतीचरण ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर देश सेवा में जुट जाने का संकलप लिया। असहयोग आन्दोलन के दिनों में गाँधी जी से प्रभावित होकर दुर्गा देवी और उनके पति स्वयं खादी के कपड़े पहनते और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते। असहयोग आन्दोलन जब अपने चरम पर था, ऐसे में चैरी-चैरा काण्ड के बाद अकस्मात इसको वापस ले लिया जाना नौजवान क्रान्तिकारियों को उचित न लगा और वे स्वयं का संगठन बनाने की ओर प्रेरित हुये। असहयोग आन्दोलन के बाद भगवतीचरण वोहरा ने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल काॅलेज से 1923 में बी0ए0 की परीक्षा उतीर्ण की। दुर्गा देवी ने इसी दौरान प्रभाकर की परीक्षा उतीर्ण की।

1924 में तमाम क्रान्तिकारी ‘कानपुर सम्मेलन’ के बहाने इकट्ठा हुये और भावी क्रान्तिकारी गतिविधियों की योजना बनायी। इसी के फलस्वरूप 1928 में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ का गठन किया गया, जो कि बाद में ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ में परिवर्तित हो गया। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा, बटुकेश्वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल इत्यादि जैसे तमाम क्रान्तिकारियों ने इस दौरान अपनी जान हथेली पर रखकर अंग्रेजी सरकार को कड़ी चुनौती दी। भगवतीचरण वोहरा के लगातार क्रान्तिकारी गतिविधयों में सक्रिय होने के साथ-साथ दुर्गा देवी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहीं। 3 दिसम्बर 1925 को अपने प्रथम व एकमात्र पुत्र के जन्म पर दुर्गा देवी ने उसका नाम प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के नाम पर शचीन्द्रनाथ वोहरा रखा।

वक्त के साथ दुर्गा देवी क्रान्तिकारियों की लगभग हर गुप्त बैठक का हिस्सा बनती गयीं। इसी दौरान वे तमाम क्रातिकारियों के सम्पर्क र्में आइं। कभी-कभी जब नौजवान क्रान्तिकारी किसी समस्या का हल नहीं ढूँढ़ पाते थे तो शान्तचित्त होकर उन्हें सुनने वाली दुर्गा देवी कोई नया आईडिया बताती थीं। यही कारण था कि वे क्रान्तिकारियों में बहुत लोकप्रिय और ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से प्रसिद्ध थीं। महिला होने के चलते पुलिस उन पर जल्दी शक नहीं करती थी, सो वे गुप्त सूचनायें एकत्र करने से लेकर गोला-बारूद तथा क्रान्तिकारी साहित्य व पर्चे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने हेतु क्रान्तिकारियों की काफी सहायता करती थीं। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा देवी ने ही की। बैठक में अंगे्रज पुलिस अधीक्षक जे0 ए0 स्काॅट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी।

8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ आजादी की गूँज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि -‘‘बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।’’ इस घटना से अंग्रेजी सरकार अन्दर तक हिल गयी और आनन-फानन में ‘साण्डर्स हत्याकाण्ड’ से भगत सिंह इत्यादि का नाम जोड़कर फांसी की सजा सुना दी। भगत सिंह को फांसी की सजा क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये बड़ा सदमा थी। अतः क्रान्तिकारियों ने भगत सिंह को छुड़ाने के लिये तमाम प्रयास किये। मई 1930 में इस हेतु सेन्ट्रल जेल लाहौर के पास बहावलपुर मार्ग पर एक घर किराये पर लिया गया, पर इन्हीं प्रयासों के दौरान लाहौर में रावी तट पर 28 मई 1930 को बम का परीक्षण करते समय दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा आकस्मिक विस्फोट से शहीद हो गये। इस घटना से दुर्गा देवी की जिन्दगी में अंधेरा सा छा गया, पर वे अपने पति और अन्य क्रान्तिकारियों की शहादत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थीं। अतः, इससे उबरकर वे पुनः क्रान्तिकारी गतिविविधयों में सक्रिय हो गईं।

लाहौर व दिल्ली षडयंत्र मामलों में पुलिस ने पहले से ही दुर्गा देवी के विरुद्ध वारण्ट जारी कर रखा था। ऐसे में जब क्रान्तिकारियों ने बम्बई के गर्वनर मेल्कम हेली को मारने की रणनीति बनायी, तो दुर्गा देवी अग्रिम पंक्ति में रहीं। 9 अक्टूबर 1930 को इस घटनाक्रम में हेली को मारने की रणनीति तो सफल नहीं हुयी पर लैमिग्टन रोड पर पुलिस स्टेशन के सामने अंग्रेज सार्जेन्ट टेलर को दुर्गा देवी ने अवश्य गोली चलाकर घायल कर दिया। क्रान्तिकारी गतिविधियों से पहले से ही परेशान अंग्रेज सरकार ने इस केस में दुर्गा देवी सहित 15 लोगों के नाम वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें 12 लोग गिरफ्तार हुये पर दुर्गा देवी, सुखदेव लाल व पृथ्वीसिंह फरार हो गये। अन्ततः अंग्रेजी सरकार ने मुख्य अभियुक्तों के पकड़ में न आने के कारण 4 मई 1931 को यह मुकदमा ही उठा लिया। मुकदमा उठते ही दुर्गा देवी पुनः सक्रिय हो गयीं और शायद अंग्रेजी सरकार को भी इसी का इन्तजार था। अन्ततः 12 सितम्बर 1931 को लाहौर में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, पर उस समय तक लाहौर व दिल्ली षड्यंत्र मामले खत्म हो चुके थे और लैमिग्टन रोड केस भी उठाया जा चुका था, अतः कोई ठोस आधार न मिलने पर 15 दिन बाद मजिस्ट्रेट ने उन्हें रिहा करने के आदेश दे दिये। अंगे्रजी सरकार चूँकि दुर्गा देवी की क्रान्तिकारी गतिविधियों से वाकिफ थी, अतः उनकी गतिविधियों को निष्क्रिय करने के लिये रिहाई के तत्काल बाद उन्हें 6 माह और पुनः 6 माह हेतु नजरबंद कर दिया। दिसम्बर 1932 में अंग्रेजी सरकार ने पुनः उन्हें 3 साल तक लाहौर नगर की सीमा में नजरबंद रखा।

तीन साल की लम्बी नजर बन्दी के बाद जब दुर्गा देवी रिहा हुयीं तो 1936 में दिल्ली से सटे गाजियाबाद के प्यारेलाल गल्र्स स्कूल में लगभग एक वर्ष तक अध्यापक की नौकरी की। 1937 में वे जबरदस्त रूप से बीमार पड़ी और दिल्ली की हरिजन बस्ती में स्थित सैनीटोरियम में उन्होंने अपनी बीमारी का इलाज कराया। उस समय तक विभिन्न प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी और इसी दौरान 1937 में ही दुर्गादेवी ने भी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में अपनी सक्रियता पुनः आरम्भ की। अंग्रेज अफसर टेलर को मारने के बाद फरार रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हो चुकी थी। 1937 में वे प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी दिल्ली की अध्यक्षा चुनी गयीं एवं 1938 में कांग्रेस द्वारा आयोजित हड़ताल में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1938 के अन्त में उन्होंने अपना ठिकाना लखनऊ में बनाया और अपनी कांग्रेस सदस्यता उत्तर प्रदेश स्थानान्तरित कराकर यहाँ सक्रिय हुयीं। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित जनवरी 1939 के त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) के कांग्रेस अधिवेशन में दुर्गा देवी ने पूर्वांचल स्थित आजमगढ़ जनपद की प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।

दुर्गा देवी का झुकाव राजनीति के साथ-साथ समाज सेवा और अध्यापन की ओर भी था। 1939 में उन्होंने अड्यार, मद्रास में मांटेसरी शिक्षा पद्धति का प्रशिक्षण ग्रहण किया और लखनऊ आकर जुलाई 1940 में शहर के प्रथम मांटेसरी स्कूल की स्थापना की, जो वर्तमान में इण्टर काॅलेज के रूप में तब्दील हो चुका है। मांटेसरी स्कूल लखनऊ की प्रबन्ध समिति में तो आचार्य नरेन्द्र देव, रफी अहमद किदवई व चन्द्रभानु गुप्ता जैसे दिगग्ज शामिल रहे। 1940 के बाद दुर्गादेवी ने राजनीति से किनारा कर लिया पर समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को काफी सराहा गया।

दुर्गा देवी ने सदैव से क्रान्तिकारियों के साथ कार्य किया था और उनके पति की दर्दनाक मौत भी एक क्रान्तिकारी गतिविधि का ही परिणाम थी। क्रान्तिकारियों के तेवरों से परे उनके दुख-दर्द और कठिनाइयों को नजदीक से देखने व महसूस करने वाली दुर्गा देवी ने जीवन के अन्तिम वर्षांे में अपने निवास को ‘‘शहीद स्मारक शोध केन्द्र’’ में तब्दील कर दिया। इस केन्द्र में उन शहीदों के चित्र, विवरण व साहित्य मौजूद हैं, जिन्होंने राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुये या तो अपने को कुर्बान कर दिया अथवा राष्ट्रभक्ति के समक्ष अपने हितों को तिलांजलि दे दी। एक तरह से दुर्गा देवी की यह शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि थी तो आगामी पीढ़ियों को आजादी की यादों से जोड़ने का सत्साहस भरा जुनून भी। पारिवारिक गतिविधियों से लेकर क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन सक्रिय दुर्गा देवी 92 साल की आयु में 14 अक्टूबर 1999 को इस संसार को अलविदा कह गयीं। दुर्गा देवी उन विरले लोगों में से थीं जिन्होंने गाँधी जी के दौर से लेकर क्रान्तिकारी गतिविधियों तक को नजदीक से देखा, पराधीन भारत को स्वाधीन होते देखा, राष्ट्र की प्रगति व विकास को स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दौर के साथ देखा....आज दुर्गा देवी हमारे बीच नहीं हैं, पर हमें उनके सपनों, मूल्यों और जज्बातों का अहसास है। आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम महिलायें अपनी गतिविधियों से नाम कमा रही हैं, पर दुर्गा देवी ने तो उस दौर में अलख जगायी जब महिलाओं की भूमिका प्रायः घर की चहरदीवारियों तक ही सीमित थी।

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

राष्ट्रमंडल खेल, गाँधी जी और जनकवि नागार्जुन....

आज से राष्ट्रमंडल खेल आरंभ हो रहे हैं. कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं तो कुछ पक्ष में. विरोध का कारण खेल नहीं बल्कि इन खेलों के पीछे छुपे गुलामी के अवशेष हैं. हम सभी ने देख की किस तरह भारत की राष्ट्रपति क्वींस-बैटन को लेने लन्दन पहुँची. आज भारत एक संप्रभु राष्ट्र है, हमें किसी भी आयोजन के लिए किसी की रहनुमाई की जरुरत नहीं है. मणिशंकर अय्यर, शिवराज सिंह चौहान के विरोध राजनैतिक हो सकते हैं, पर तमाम ऐसे भारतीय हैं, जो इन खेलों को गुलामी के प्रतीक रूप में देखते हैं. गुलामी के प्रतीकों को जितना जल्दी उतार दिया जाय, किसी राष्ट्र के लिए बेहतर ही होगा. वैसे भी राष्ट्रपिता गाँधी जी की जयंती के ठीक अगले दिन राष्ट्रमंडल खेलों की शुरुआत कहीं उस अंग्रेजी मानसिकता का परिचायक तो नहीं है, जो गाँधी जी के सपनों को भुला देनी चाहती है. यहाँ याद आती हैं जनकवि नागार्जुन की एक विलक्षण कविता, जो उन्होंने वर्ष 1961 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के भारत दौरे को इंगित करते हुए लिखी थी.इसमें एक पंक्ति गौरतलब है- बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो।...कहीं गाँधी जी के नाम पर सत्ता का स्वाद चखती कांग्रेस सरकार 'गाँधी जयंती' के अगले दिन इस आयोजन का उद्घाटन करवाकर बापू को छेड़ तो नहीं रही है। सौभाग्यवश यह नागार्जुन जी का जन्म -शताब्दी अवसर भी है, अत: यह कविता और भी प्रासंगिक हो जाती है-

आओ रानी,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,

यही हुई है राय जवाहरलाल की,

रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की,

यही हुई है राय जवाहरलाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


आओ शाही बैण्ड बजायें,

आओ बन्दनवार सजायें,

खुशियों में डूबे उतरायें,

आओ तुमको सैर करायें...

उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


तुम मुस्कान लुटाती आओ,

तुम वरदान लुटाती जाओ,

आओ जी चांदी के पथ पर,

आओ जी कंचन के रथ पर,

नज़र बिछी है, एक-एक दिकपाल की,

छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


सैनिक तुम्हें सलामी देंगे,

लोग-बाग बलि-बलि जायेंगे,

दॄग-दॄग में खुशियाँ छ्लकेंगी,

ओसों में दूबें झलकेंगी।

प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र के भाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


बेबस-बेसुध, सूखे-रुखडे़,

हम ठहरे तिनकों के टुकडे़,

टहनी हो तुम भारी-भरकम डाल की,

खोज खबर तो लो अपने भक्तों के खास महाल की !

लो कपूर की लपट,

आरती लो सोने की थाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो।

प्रेसिडेन्ट की लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो।

पद्म-भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो,

पार्लियामेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो।

मिनिस्टरों से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लो।

दायें-बायें खडे हज़ारी आफ़िसरों से प्यार लो।

धनकुबेर उत्सुक दीखेंगे उनके ज़रा दुलार लो।

होंठों को कम्पित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो।

बिजली की यह दीपमालिका, फिर-फिर इसे निहार लो।

यह तो नयी नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो।

एक बात कह दूं मलका, थोडी-सी लाज उधार लो।

बापू को मत छेडो, अपने पुरखों से उपहार लो।

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की !

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !


रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की,

यही हुई है राय जवाहरलाल की,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

महात्मा गाँधी


महात्मा गाँधी
सत्य और अहिंसा की मूर्ति
जिसके सत्याग्रह ने
साम्राज्यवाद को भी मात दी
जिसने भारत की मिट्टी से
एक तूफान पैदा किया
जिसने पददलितों और उपेक्षितों
की मूकता को आवाज दी
जो दुनिया की नजरों में
जीती-जागती किवदंती बना
आज उसी गाँधी को हमने
चौराहों, मूर्तियों, सेमिनारों और किताबों
तक समेट दिया
गोडसे ने तो सिर्फ
उनके भौतिक शरीर को मारा
पर हम रोज उनकी
आत्मा को कुचलते देखते हैं
खामोशी से।

(पतिदेव कृष्ण कुमार जी के काव्य-संकलन 'अभिलाषा' से साभार )

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

बड़े-बुजुर्गों के बारे में आत्मीयता से सोचें..

आजकल हर दिन किसी न किसी को समर्पित हो गया है. कई लोग इसका विरोध भी करते हैं, पर इसका सकारात्मक पहलू यह है कि आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में एक पल ठहरकर हम उस भावना पर विचार करें, जिस भावना से ये दिवस आरंभ हुए हैं. ..आज अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस है. संयुक्त परिवार जैसे-जैसे टूटते गए, बुजुर्गों की स्थिति भी दयनीय होती गई. हम यह भूल गए कि इनके बिना हमारे जीवन का कोई आधार नहीं है. दैनिक ट्रिब्यून अख़बार में प्रकाशित शब्द गौरतलब हैं- '' वृद्धजन सम्पूर्ण समाज के लिए अतीत के प्रतीक, अनुभवों के भंडार तथा सभी की श्रद्धा के पात्र हैं। समाज में यदि उपयुक्त सम्मान मिले और उनके अनुभवों का लाभ उठाया जाए तो वे हमारी प्रगति में विशेष भागीदारी भी कर सकते हैं। इसलिए बुजुर्गों की बढ़ती संख्या हमारे लिए चिंतनीय नहीं है। चिंता केवल इस बात की होनी चाहिए कि वे स्वस्थ, सुखी और सदैव सक्रिय रहें।''


यहाँ भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' याद आती है, जहाँ बेटे ने अपने बास को घर बुलाने से पहले बूढी माँ को कैद ही कर दिया. पर जाते-जाते बास माँ से टकरा ही गया और वो भावनात्मक पल...! आज कहीं वृद्धाश्रम खुल रहे हैं तो कहीं घर में बुजुर्गों की जिंदगी जलालत का शिकार हो रही है. बड़े शहरों में अक्सर ऐसी घटनाएँ सुनने को मिलती हैं, जहाँ बुजुर्ग घर में अकेले रहते हैं और चोरी-हत्या इत्यादि के शिकार होते हैं. इन परिस्थितियों में बुजुर्ग अपने आपको उपेक्षित महसूस न करें, यह समाज की जवाबदारी है। भारत देश की बात करें तो हमारे यहाँ 1991 में 60 वर्ष से अधिक आयु के 5 करोड़ 60 लाख व्यक्ति थे। जो 2007 में बढ़कर 8 करोड़ 40 लाख हो गये। देश में सबसे अधिक बुजुर्ग केरल में हैं, जहाँ कुल जनसंख्या में 11 प्रतिशत बुजुर्ग हैं, जबकि सम्पूर्ण देश में यह औसत लगभग 8 प्रतिशत है।

जरुरत है कि हम अपने बड़े-बुजुर्गों के बारे में गहराई और आत्मीयता से सोचें और हमारे बुजुर्ग भी अपने को रचनात्मक कार्यों में लगायें, तभी मानवता का हित होगा.